सिकंदर के सैनिकों के वंशज नहीं, इंडो-मंगोलियन्स हैं मलाणावासी

(यह लेख 2018 में फोकस हिमाचल में प्रकाशित हो चुका है)

मलाणा ऐतिहासिक लोकतंत्र से हशीश घाटी तक :-

पार्वती घाटी के भीतरी हिस्से में दुर्गम गर्त घाटियों से घिरा हुआ मलाणा आज विश्व मे किसी परिचय का मोहताज नहीं है । मलाणा को आज अधिकतर लोग चरस की खेती के लिए पहचानते हैं । देशी विदेशी पर्यटक हर वर्ष यहां सैंकड़ों की तादात में उत्सुकतावश घूमने आते हैं । वो हशीश घाटी के रूप में मशहूर हो चुकी मलाणा घाटी का अनुभव अपनी आंखों से करना चाहते हैं । वैसे तो पर्यटन मानचित्र पर मलाणा को विश्व के प्राचीनतम लोकतंत्र के रूप में उकेरने के प्रयास किये गए थे , परंतु इसके विपरीत यह चरस के लिए अधिक प्रसिद्ध हुआ । यहां के परिवेश पर देशी-विदेशी लोगों ने बहुत सी डॉक्यूमेंट्री बनाई और इसके बारे में विभिन्न जगहों पर लेख भी लिखे गए । परंतु विडम्बना रही कि सभी लघु वृतचित्रों और लेखों का केंद्रबिंदु प्राचीनतम लोकतंत्र ना होकर चरस ही रहा । मलाणा के इस हशीश कल्चर को दुनिया के सामने लाने में 2011 में अल्मान दत्ता द्वारा बनाई गई डॉक्युमेंट्री ‘बोम’ का भी काफी योगदान रहा । मलाणा जाने वाले पर्यटक यहां के संस्कृतिक दृश्यवलोकन की उत्सुकता के विपरीत यहां के हशीश कल्चर को देखने और उच्च क्वालिटी की चरस का आनंद लेने जाते हैं । आज कुल्लू की यह अमूल्य प्रागैतिहासिक संस्कृति चरस के आवरण में कहीं खो गई है।

मलाणा पर तथ्यात्मक शोधकार्य करते विद्वान :-

पर इसी बीच आज भी कुछ लोग हैं जो मलाणा के इस प्रागैतिहासिक जनजातीय परिवेश पर शोध कार्य करके इस संस्कृति की वास्तविक उत्पत्ति का पता लगाने में जी-जान से जुटे हुए हैं । मलाणा के जनजातीय इतिहास का शोध करने वालों में एक प्रमुख और सबसे तार्किक शोध करने व्यक्ति हैं , लाहौल स्पिती के सुविख्यात इतिहासकार छेरिंग दोरजे । जिन्होंने हिमालय की विभिन्न जनजातियों के रहन-सहन , रीति-रिवाज और बोलियों पर तुलनात्मक अध्ययन करके बहुत ही सटीक जानकारियां मलाणा के बारे में जुटाई हैं । उनके अनुसार मलाणा वासियों के सिकंदर के सैनिकों से सम्बंध ना होकर मंगोल जाति से होने के अधिक प्रमाण मिलते हैं ।

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मलाणा वासी , सिकंदर का काल और भारतीय ग्रंथों के अनुसार कालखण्ड भिन्नता :-

अपनी अनोखी संस्कृति के लिए मशहूर मलाणा में रहने वाले जनजातीय समुदाय के लोगों के विषय मे पूर्व में बहुत से साहित्यकारों ने शोध किये हैं । अधिकतर शोध कार्यों में साहित्यकारों ने मलाणा वासियों का सम्बंध अलेक्जेंडर के सैनिकों से सम्बंधित बताया है । लगभग सभी इतिहासकार और स्वयं मलाणा के लोग भी यही मानते आए हैं कि मलाणा वासियों के पूर्वज सिकंदर की सेना की एक टुकड़ी से बिछड़े हुए सैनिक थे । इतिहासकारों ने मलाणा वासियों के चेहरे की बनावट और उनकी अनोखी कनाषी बोली के आधार पर यह अनुमान लगाया है । भौगोलिक संदर्भों के अनुसार सिकंदर और पोरस के युद्ध के आधार पर भी इन अनुमानों को समय-समय पर और अधिक बढ़ावा दिया गया है । परंतु सभी इतिहासकारों ने यह सब एक अनुमान के आधार पर ही कहा है । यहां एक बात इस तथ्य पर संशय उत्पन्न करती है कि सिकंदर 326 ईसा पूर्व भारत आया था । यदि उसके बाद भी कोई सैनिक टुकड़ी बिछड़ी होगी तो उनका मलाणा पहुंचने का काल 326 ईसा पूर्व के आसपास ही रहा होगा । परंतु मलाणा की संस्कृति प्रागैतिहासिक मानी जाती है ।

जैसा कि विभिन्न आधुनिक शोधकार्यों के अनुसार बौद्धिक समाज को सर्वविदित है मलाणा प्राचीन कुलूत देश (वर्तमान कुल्लू) के अन्तर्गत आता है । कुलूत देश के संदर्भ में भी देखें तो कुलूत का जिक्र महाभारत काल तक मे मिलता है । जिसमे उस समय यहां के राजा ‘क्षेमधूर्ति’ ने महाभारत के युद्ध मे कौरवों की ओर से भाग लिया था । पांडवों का वर्णन हिडिम्बा के साथ भी यहां के कई उपाख्यानों में मिल जाता है । प्राचीन कुलूत साम्राज्य का वर्णन भारतीय ग्रंथों में किसी ना किसी रूप में मिलता है । इन ग्रंथों में महाभारत , पाणिनि रचित अष्टाध्यायी , मुद्राराक्षस , कादंबरी प्रमुख हैं ।

अतः इन पौराणिक उल्लेखों के अनुरूप सिकंदर का काल और मलाणा की संस्कृति का प्रगैतिहासिक होना संशय की स्थिति उत्पन्न करते हैं । साथ ही मलाणा वासियों के सिकंदर की सेना के वंशज होने के किसी के पास कोई तथ्यात्मक प्रमाण भी नहीं हैं ।

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छेरिंग दोरजे का मलाणा पर गहन अध्ययन :-

इस विषय पर अक्टूबर 2013 में हिमप्रस्थ पत्रिका के अंक में छेरिंग दोरजे के दो लेख छपे थे ।

पहला ‘मलाणा , प्रागैतिहासिक जनजातीय संस्कृति का एक बिंदु द्वीप’

और दूसरा ‘मलाणा का अधिष्ठाता देऊ जमलू और प्राचीन ग्राम स्वराज प्रणाली’

दोनो लेखों में ऐसे बहुत से उदहारण और तुलनात्मक विवरण दिए गए हैं जिनसे मलाणा के वास्तविक इतिहास को जानने का सुअवसर प्राप्त होता है ।

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किन्नर-किरात जाति और मलाणा वासी :-

छेरिंग दोरजे कुलूत के विषय मे अपने लेख में कहते हैं

‘एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार कुल्लू राज्य के आदि संस्थापक भोट वंशज (तिब्बती) ‘मकर’ था , जिसके नाम पर कुल्लू की प्रथम राजधानी का नाम मकरहा अथवा मकड़सा पड़ा । दुर्गम तथा दूरस्थ संकरी घाटी मलाणा के भीतरी भाग में बसे लोग कुलूत जनपद के आदिम निवासी मलाणा जनजाति समुदाय एक विचित्र तथा अछूते सांस्कृतिक द्वीप को प्रस्तुत करते हैं’

वो आगे लिखते हैं कि कुलूत राज्य के निवासी किन्नर-किरात जनजाति समुदाय से थे । किरात समुदाय भारतीय-मंगोल जाति से संबंधित थे । इनकी भाषा किरान्ती तिब्बती-बर्मी भाषा परिवार से सम्बंधित है ।

इतिहासकार डॉ सुनीती कुमार चटर्जी के अनुसार भी यह लोग भारतीय-मंगोल जाति समुदाय किरात जनजाति के अतिरिक्त अन्य नहीं हो सकते । इनके बारे में संस्कृति और भोटी साहित्य में बारम्बार उल्लेख हुआ है । यजुर्वेद में इनके बारे में प्रारंभिक उल्लेख इस प्रकार है —-

गुहभ्यद् किरातमः सनुभ्यो जम्भकम्

पर्ववेभ्यद किमपुरुषम्

किरात गुहा के लिए जम्भक (लंबी दांत का पुरुष) पहाड़ी ढलानों के लिए किमपुरुष (किन्नर) पर्वतों के लिए ।

यजुर्वेद में उल्लेख है कि किरात स्त्रियां पहाड़ों में औषध जड़ी बूटियां खोदती हैं ।

किरातिक कुमारिक सक खनाति भैषजम

हिरणच्यभिर अभरीभीर गिरिनम उप सनुसु

किरात युवतियां औषद्ध बूटी खोदती हैं । पहाड़ों की ढलानों पर खुरपी के साथ खोदती हैं । जिसपर सोने का काम किया होता है ।

इसी प्रकार पहाड़ी किरातों के बारे में प्राग्ज्योतिष (कामरूप) के राजा भगदत्त का किराती सेनाओं से कौरवों के पक्ष में युद्ध करने और हारने का वर्णन भी मिलता है । रामायण में भी किरातों का वर्णन मिलता है जो इस प्रकार है —-

किरातश्च तीक्षणचुदश्य हेमभः प्रियदर्शनः

अन्त्रजलचर कोन नरव्याघ्र इति श्रुता ।।

किरातों ने अपने बालों को चोटी पर बांध रखा है । देखने मे सुंदर वर्णआभा वाले लगते हैं । अतः कुलूत राज्य और उसके आस पड़ोस के पहाड़ी जनपदों के प्राचीन निवासी किन्नर-किरात समुदाय से थे , यह कहना अतिश्योक्ति ना होगी ।

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कणाषी बोली के अध्ययन से मिला मलाणा जनजाति का तिब्बत के बोन-पो से सम्बंध :-

मलाणा में बोली जाने वाली बोली को कणाषी कहते हैं । इस बोली पर छेरिंग दोरजे ने व्यापक अध्ययन किया और उन्हें इसका सम्बन्ध तिब्बत के प्रथम धर्म बोन-पो की बोली जङ्-जुङ् से मिला । अधिक अध्ययन करने पर स्पष्ट हुआ कि मलाणा की कणाषी बोली जङ्-जुङ् की तिब्बती-वर्मी भाषा के परिवार की ही उपबोली है । वे मानते हैं कि यही बोली मलाणा वासियों को किराती समुदाय से जोड़ने का सशक्त आधार है ।

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जङ्-जुङ् बोली का हिमालय की बोलियों में वर्तमान में भी प्रभाव :-

छेरिंग दोरजे जी के अनुसार हिमालय के दुर्गम क्षेत्रों में बसने वाले जनजातीय समुदायों में बोली जाने वाली कई बोलियां जङ्-जुङ् और किन्नर-किराती बोली कि समवाणियाँ हैं । इन प्राचीन बोलियों को बोलने वाले लोग भारत के उत्तर-पूर्वी अरुणाचल प्रदेश से लेकर सिक्किम , नेपाल , उत्तराखंड , हिमाचल , चितराल और बाल्टिस्तान तक फैले हुए हैं । इस बोली को बोलने वाली अधिकतर जनजातियां दुर्गम हिमालयके दुर्गम , उच्च और विलग क्षेत्रों में पाई जाती हैं । लाहुल की बोली पुनन कद (लाहुली जनजातीय बोली) भी इसी भाषाई परिवार की उपबोली है ।

छेरिंग दोरजे कहते हैं कि ” तिब्बती बोन धर्म के विशाल साहित्य में जङ्-जुङ् राज्य , जङ्-जुङ् जनजातीय समुदाय और जङ्-जुङ् भाषा के वृतांत किए गए हैं । यह प्राचीन भारतीय ग्रंथों में वर्णित किन्नर-किरात जनजाति और उनकी भाषा किरान्ती को इंगित करते हैं । क्योंकि इन भाषाओं में समरूपता है ।

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मलाणा के बारे में भ्रांतियां और जङ्-जुङ् पर छेरिंग दोरजे का मत :-

प्राचीन मलाणा संस्कृति के बारे सर्वसाधारण में मिथ्या विचार और अनेक भ्रांतियां फैलाई गई हैं । इनकी भाषा कणाषी को राक्षस भाषा , देऊ जमलू को जमदग्नि ऋषि , स्वतःशासी स्वराज प्रणाली को संसार की इस प्रकार की एकमात्र शासन प्रणाली आदि आदि कहा गया है । जबकि कुल्लू में कणाषी को देव वाणी कहा जाता है । जब गूर देव संदेश साधारण जन को सुनाता है तो उसे देव “कणाश भाषा मे बोला” कहते हैं । जैसा पहले वर्णन किया मलाणा वासी किरात जनजाति से सम्बंध रखते हैं और प्राकृतिक शक्तियों के पुजारी हैं । इस जनजातीय समाज मे एक हिन्दू ऋषि जमदग्नि को देवता मानकर पूजा करना हास्यास्पद लगता है क्योंकि देवता और ऋषि दो भिन्न शक्तियां हैं ।

बुद्धकालीन उत्तर भारत मे स्वतंत्र स्वतःशासी प्रणाली के कई गणराज्य थे । स्वयं बुद्ध भी गणतंत्र राज्यों के बड़े प्रशंसक थे । वर्तमान में जम्मू-कश्मीर के सुदूर उत्तर पश्चिमी कबाइली क्षेत्र (पाकिस्तान अधिकृत) गिलगित नदी की सहायक नदियों के मसतूज और चितराल घाटियों में बसे सात गांवों – दरेल , तनगीर , गोर , थालिचा , चिलास , कोली और पालूस में मलाणा की ही भांति स्वतःशासी लोकतंत्र प्रणाली की ग्राम पंचायतें हैं । स्थानीय दरद भाषा मे इस प्रणाली को ‘सीगास’ कहा जाता है । चुने हुए सदस्य को ‘जोस्टेरा’ कहते हैं । यदि जनमत के फैसले के विरुद्ध एक सदस्य भी खड़ा हो जाए तो उस फैसले को तब तक टाल दिया जाता है , जब तक वह विरोधी सदस्य मान ना जाए ।

विस्मृति के गर्भ में समाया प्राचीन जङ्-जुङ् राज्य पश्चिमी तिब्बत के पठार और अप्पर सिंधु जलागम क्षेत्र समेत , उत्तर में क्यून लुन शान और दक्षिण में हिमालय के कुछ भीतरी भागों पर आधारित एक विस्तृत भू-भाग में स्थापित था । यहां के निवासियों की भाषा ‘जङ्-जुङ् कद’ थी और धर्म बोन या बोनो था । सातवीं शताब्दी में तिब्बत सम्राट स्रोङ चन गम्पो ने अपने साम्राज्य के साथ मिलकर इस साम्राज्य का अस्तित्व ही मिटा दिया । बीतते समय मे इस राज्य ने अपने अस्तित्व को सदा के लिए खो दिया और पूर्णतया तिब्बती संस्कृति में समाहित हो गया । पर अब विश्व के विभिन्न शोधार्थियों इसपर व्यापक शोधकार्य करते हुए इसके पहलुओं को जगत के समक्ष प्रमाणों के साथ रखा है । जिसमे मुख्य रूप से इस साम्राज्य का भाषाई अध्ययन शामिल है ।

सर्वप्रथम ए.एफ.पी. हरकोर्ट ने अपनी पुस्तक ‘हिमालयन डिस्ट्रिक ऑफ कुलू , लाहौल एन्ड स्पिती’ में कणाषी के चन्द नमूने दिए । ए.एच. डाइक ने ‘कुल्लू डाइलेक्ट ऑफ हिंदी’ नामक पुस्तक में मलाणा की शब्दावली दी है । जी.सी.एल. होबैल असिस्टेंट कमिश्नर कुल्लू द्वारा भेजे गए मलाणा बोली पर परिचय लेख को डॉ. ग्रियर्सन ने लिंग्वेस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया पुस्तक में खण्ड-तीन में छापा है । ग्रियर्सन ने भी कणाषी बोली को तिब्बती-बर्मी भाषा परिवार की पश्चिमी तिब्बती हिमालयन भाषा का ग्रुप माना है ।

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छेरिंग दोरजे के शोध के अनुसार मलाणा के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विषय मे हमारे पूर्व में बनाए गए मत ध्वस्त होते हैं । वो आज भी कहते हैं कि मलाणा पर व्यापक शोध करने की आवश्यकता है । उन्होंने बातचीत में यह भी बताया कि बोन सम्प्रदाय के विद्वानों से उन्होंने मलाणा में बचे हुए बोन रीति-रिवाजों पर शोध करने के लिए आग्रह किया है । वे पूर्णतया विश्वस्त होकर बताते हैं कि मलाणा वासी सिकंदर के वंशज नहीं है, बल्कि प्राचीन इंडो-मंगोलियन जनजाति के लोग हैं । यह उस समय के लोग हैं जब हिमालय ना तो देशों की सीमाएं में बंधा हुआ था , ना ही यहां किसी प्रकार की देशज भिन्नता थी ।

[संलग्न चित्र सौजन्य : A Political Systam of Himalayan Community by Colin Rosser]

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